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    माधो सिंह भंडारी - वीर योद्धा

     Madhosingh

    मलेथा मेंं स्थित माधोसिंह का स्‍मारक

    सोलह शताब्दी के अंतिम वर्षों में संभवत: 1585 या 1595 में माधो सिंह भंडारी का जन्म श्रीनगर के पास कीर्तिनगर देवप्रयाग मार्ग में मलेथा नामक गांव में कालो भंडारी नामक एक वीर योद्धा के घर हुआ था। गढ़ नरेश ने कालो भंडारी की वीरता और चातुर्य से प्रभावित होकर उसे बहुत जमीन दी थी। माधो सिंह भी बचपन से ही वीर था और कम उम्र में ही राजसेना में शामिल हो गया था। अपनी वीरता तथा बुद्धिमता के कारण वह भी अपने पिता की ही तरह बहुत जल्दी सफलता की सीढ़ियां चढ़ने लगा और जल्द ही दरबार में एक महत्वपूर्ण पद पर स्थापित हो गया। एक योद्धा और सेनापति के रूप में माधो सिंह ने कई लड़ाइयां लड़ी। गढ़ नरेश महीपत शाह (1629-1646) स्वयं बड़ा वीर पुरूष था। तिब्बत के सरदारों के बार-बार होने वाले हमलों से परेशान होकर महीपत शाह स्वयं सेना लेकर नीति घाटी में पहुंच गया। रिखोला लोदी नामक एक कुशल योद्धा और सेनानायक की अगुयाई में गढ़ सेना ने तिब्बत के हमलावरों को तिब्बत के अन्दर खदेड़ दिया। दापाघाट का किला और मंदिर गढ़ सेना ने जीत लिए। माधो सिंह भंडारी भी इस जीत के नायकों में एक थे।


    गढ़वाल का इतिहास में पण्डित हरिकृष्ण रतूड़ी ने लिखा है, इस राजा के समय में अमात्य (मंत्री) माधो सिंह भंडारी का भी होना पाया जाता है, जिसकी मृत्यु छोटी चीन नामक देश में होनी पाई जाती है। वह देश अब बिशहर के राजा के अधीन सतलज की घाटी में तिब्बत से मिला हुआ है।


    वह बहादुर आमात्य सेना लेकर वहां तक विजय करता चला गया था। वहां पहुंचते ही रोग ने ऐसा आक्रमण किया कि वह शीघ्र ही मर गया। मरते समय माधो सिंह ने सेना को यह शिक्षा दी थी कि यदि तुमने मेरा मरना प्रकट किया तो तुम एक भी यहां से जीते जागते घर न लौट सकोगे। लड़ते और पीछे हटते चले जाना और मेरे शव को तेल में भून, कपड़े में लपेट व बक्स में बंद कर के हरिद्वार ले जाकर दाह करना। सैनिक और सरदारों ने वैसा ही किया और सेना को सकुशल लौटा लाए, हरिद्वार में माधोसिंह की शवदाह क्रिया की और श्रीनगर दरबार में उसकी मृत्यु की सूचना दी।


    माधो सिंह ने तिब्बत के साथ ही गढ़वाल की सीमा को ठीक किया था। उसके बनवाए हुए चबुतरे हिमालय की घाटियों में अब तक भी पाए जाते हैं। माधो सिंह की बहादुरी के विषय में एक छन्द गढ़वाल में प्रसंगवश कहा जाता है, वह यह है-


    एक सिंह, रण वण, एक सिंह गाय का।
    एक सिंहमाधो सिंहऔर सिंह काए का।।


    अर्थात एक सिंह वह है जो रण में लड़ता है और एक सिंह वह है जो वन में रहता है। एक सिंह (सींग) वह है जो पूज्य गऊ के सिर में रहता है और एक सिंह माधो सिंह है इसके अतिरिक्त और सिंह किस बात के हैं अर्थात और सिंह कोई नहीं।


    इसी माधो सिंह ने मलेथा की नहर की सुरंग निकाली थी।


    हरिकृष्ण रतूड़ी टिहरी रियासत के वजीर थे और उनकी पुस्तक गढ़वाल का इतिहास 1928 में पहली बार प्रकाशित हुई थी। पुस्तक लिखते समय भी वे रियासत के वजीर थे, इसलिए उनकी पुस्तक में माधोसिंह का उल्लेख एक राजसेवक के रूप में ही अधिक है लेकिन उनकी एक अंतिम पंक्ति कि 'इसी माधोसिंह ने मलेथा की नहर की सुरंग निकाली थी' यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि मलेथा की सुरंग का निर्माण कितना महत्वपूर्ण कार्य था।


    maletha nahar

    मलेथा की कूल के निर्माण के बारे में हमें लोक कथाओं, लोक गीतों और अन्य लोक आख्यानों बहुत संदर्भ मिलते हैं भाव विविधता है मगर मूल कथ्य एक है कि मलेथा नामक सुखड़ गांव में सिंचाई की स्थाई व्यवस्था करने के लिए माधोसिंह ने निकटवर्ती पहाड़ी नदी के पानी को गांव तक लाने के लिए एक ठोस पहाड़ के भीतर 225 फिट लम्बी सुरंग बनाने का अत्यन्त मुश्किल काम पूरा किया था।


    डॉ. हरिदत्‍त भट्ट शैलेश ने 'गढ़वाली भाषा और उसका साहित्य' में लिखा है, एक समय अनष्टि के कारण सर्वत्र भयंकर अकाल पड़ा। लोग दाने-दाने के लिए तरसने लगे। पानी बिना धरती का कण-कण सूख गया। मलेथा में माधोसिंह नाम का एक वीर रहता था। उसने अपने गांव वालों की पंचायत की। गांव से ढाई मील की दूरी पर चन्द्रमा नदी थी। उसने सबसे कहा कि चन्द्रमा से कूल (नहर) निकालनी है। सब राजी हो गए। श्रमदान का श्री गणेश हुआ। माधोसिंह की देख रेख में नहर खोदी गई। सबके चेहरों पर प्रसन्नता की लहर आ गई कि अब जल्दी नहर में पानी आयेगा और खेत हरे-भरे हो जाएंगे। पर भाग्य की बात, चन्द्रमा का पानी नहर में आया ही नहीं। कई उपाय ने किए देवी देवताओं की मनौतियां मानी, बकरों की बलि चढ़ाई, पर कुछ परिणाम न निकला, सब लोग निराश हो गए। सबके चेहरों पर उदासी छा गई और हृदय में दुख की रेखाएं खिंच गई। लोग पण्डितों के पास गए। वाक्या में के पास गए, देवता नचाए, पर कुछ न हुआ।


    एक रात को माधोसिंह ने एक भयानक सपना देखा। सपने से ऐसा लगा कि नहर में जो पानी तब आएगा, जब वह अपने एक मात्र लड़के गजेसिंह की बलि चढ़ाएगा। सपना टूटते ही माधोसिंह परेशान हो गया। क्या किया जाए? एक ओर पूरा गांव, दूसरी ओर उसकी एक मात्र संतान। यह उसकी बहादुरी और जिन्दादिली की परीक्षा थी।


    उसने अपने सपने की बात अपनी स्त्री को बताई। गजेसिंह ने दोनों की बात सुन ली। उसने अपने मन में सोचा कि यदि मेरे कारण सारा गांव बर्बाद हो गया तो मेरा जीना बेकार है। वह अपने पिता के पास गया और उसने अपनी बलि चढ़ाने के बारे में आग्रह किया।


    माधोसिंह ने बहुत सोच विचार कर आखिर यही निश्चय किया कि इसी में भला है। थोड़ी ही देर में सारे गांव में यह बात फैल गई कि माधोसिंह अपने इकलौते लड़के की बलि चढ़ाएगा।


    सुनकर सब हैरान रह गए। गजेसिंह की बलि चढ़ाई गई। नहर में पानी आ गया और जोर की मूसलधार वर्षा हुई।


    सारे गढ़वाल में माधोसिंह और गजेसिंह की वीरता और त्याग की अमरगाथा व्याप्त हो गई।


    डॉ० भट्ट की पुस्तक 1976 में प्रकाशित हुई और उन्होंने इसकी सामग्री का संग्रह 1953 से ही शुरू कर दिया था। यानी इसमें उपलब्ध सामाग्री 1950-60 के आसपास की है। गढ़वाल में आज भी चौफला या अन्य रूपों में माधोसिंह के जो आख्यान प्रचलित हैं सभी में यही बात उन थोड़े बहुत अन्तर के साथ मिलती है।


    जिस पहाड़ी के गर्भ से माधोसिंह ने सुरंग बनाई उसका नाम छेणाधार मिलता है और जिस चकमा नदी से नहर बनाई गई उसका नाम कहीं-कहीं डागर गाड़ कहा गया है। कहीं माधोसिंह को देवी का स्वप्न आने का जिक्र मिलता है तो कहीं गुरू माणिक नाथ का।


    कहीं यह कहा जाता है कि जब लम्बी लड़ाई के बाद माधोसिंह एक बार गांव लौटे तो खाने में बेस्वाद भोजन पाकर नाराज हुए। तब पत्नी ने कहा ऐसे रूखे खेतों से मीठा अनाज कैसे उगेगा। इस पर माध सिंह ने तय कर लिया कि चाहे कुछ भी हो वो गांव में पानी लेकर आयेंगे। लेकिन चन्द्रमा से पानी लाना असम्भव सा काम था। महीनों में सुरंग खुद पाई। कुछ लोक आख्यानों में यह भी कहा गया है कि सुरंग के मुंह पर बलि देकर गजेन्द्र सिंह का सिर नहर में रख दिया गया। जैसे ही नदी का पानी मोड़ा गया, नहर में पानी बहने लगा और गजेसिंह का सिर भी बहता हुआ मलेथा के खेतों में स्थापित हो गया।


    भक्त दर्शन के अनुसार माधोसिंह का देहान्त 1635 में पचास वर्ष की उम्र में हुआ था और उनकी पत्नी उदीना कुमाऊँ की एक राजकुमारी थी। मलेथा की नहर बनने से पहले उस गांव के बारे में कहा जाता था।


    'क्या च भंडारी तेरा मलेथा
    काण्डाली को खानू तेरा मलेथा
    झंगुरो को खांणू तेरा मलेथा।'


    और कूल बनने के बाद कहा गया।


    ‘ढल कंदी कूल मेरा मलेथा।
    पालिंगा कु बाड़ी मेरा मलेथा
    गाइयों का गुठ्यार मेरा मलेथा।'
    और 'आमू का बागवान मलेथा,
    लस्सण प्याज की क्यारी,
    कूल बणैक अमर ह्वेगी।,
    वीर माधोसिंह भंडारी।'


    225 फिट लम्बी, तीन फिट ऊंची और तीन फिट चौड़ी मलेथा की यह नहर लगभग चार सौ साल बाद भी सिंचाई का काम कर रही है और अब मलेथा के खेतों में फैल कर इसकी कुल लम्बाई तीन किलोमीटर से ज्यादा हो गई है। 1952 में इसकी देख रेख की जिम्मेदारी नरेन्द्र नगर सिंचाई विभाग को दी गई थी। 1993 में पहली बार इसकी मरम्मत हुई और अब सिंचाई विभाग की कृपा से बार-बार मरम्मत करवानी पड़ रही है। 2011 में तो बार्डर रोड आर्गनाइजेशन द्वारा राजमार्ग चौड़ा करने के कारण नहर को काफी क्षति पहुंची थी। बीआरओ द्वारा 29 लाख रूपया सिंचाई विभाग को दे दिए जाने पर भी इसको समय पर ठीक नहीं करवाया गया और कई सौ साल बाद 2011 में तो मलेथा गाव को ही उजाड़ देने का एक प्रयास हुआ था। गांव में स्टोन क्रेशरों के कारण बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैलने लगा था। दो क्रेशर चालू थे, तीन और लगाए जा रहे थे। तब गांव के लोग एक जुट हुए। युवा शक्ति और महिला शक्ति ने मिल कर गांव को बचाने का बीड़ा उठाया। 41 दिन के एतिहासिक अनशन, धरना, प्रदर्शन के बाद सरकार ने स्टोन क्रेशर बंद करने का आदेश दिया और माधोसिंह भंडारी का मलेथा फिर जीत गया।


    यूं तो मलेथा में माधोसिंह भंडारी का स्मारक भी है और एक समारोह भी किया जाता है। लेकिन माधोसिंह जैसे नायक़ों की स्मृति को अक्षुण्ण रखने और उनसे नई पीढ़ी को प्रेरणा देने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।


    प्रसंगवश यह उल्लेख भी जरूरी है कि 'मांझी द माउण्टेन मैन' की तरह कुछ वर्ष पूर्व माधोसिंह भंडारी पर भी मलेथा की कूल नामक एक डीवीडी फिल्म बनी थी। पर्वतीय फिल्म बैनर की इस फिल्म का निर्देशन बलराज नेगी ने किया था। लोक माध्यमों ने जिस नायक को शताब्दियों तक जीवित रखा, नये जमाने के माध्यमों को उसे अमर बनाने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।


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