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    उत्तराखंड का भाषाई स्थिति

    उत्तराखण्ड में निवास करने वाला समाज मुख्यत: अपनी स्थानीय बोली का प्रयोग करता है। यहाँ के पर्वतीय भू-भाग में अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम स्थानीय पहाड़ी बोलियाँ हैं तथा तराई क्षेत्र में हिन्दी मिश्रित भाबरी बोलियाँ प्रयुक्त होती हैं। कुमाऊँनी बोली की शाखाओं में अल्मोड़े की खसपर्जिया, पछाई एवं चौगर्खिया, नैनीताल की रौचौभैंसी, चम्पावत की कुमाईं, पिथौरागढ़ की सोर्याली ,गंगोई, अस्कोटी एवं सीराली और बागेश्वर की दनपुरिया शाखाएं प्रसिद्ध हैं। पिथौरागढ़ के धुर उत्तर में तिब्बत से लगे क्षेत्र में ब्यासी, चौदांसी, दरमिया आदि जनजातीय बोलियाँ प्रचलित हैं। नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र में आग्नेय परिवार की राजी बोली तथा इसके दक्षिण में कुमाऊंनी मिश्रित जौहारी बोली प्रचलित है। ऊधमसिंह नगर जनपद के दक्षिणी भाग में थारू और बोग्सा जनजातीय बोलियाँ प्रयुक्त होती हैं। थारू लोग राजस्थान के राजपूतों से तथा बोग्सा लोग धारानगरी के राजपूतों से अपना सम्बन्ध बताते हैं।


    गढ़वाल मण्डल के टिहरी, चमोली, पौड़ी, उत्तरकाशी आदि पहाड़ी जनपदों में टिहराली, चमियाली, शलणी, जौनपुरी, जौनसारी, रवाल्टी, जाड आदि अनेक उपबोलियाँ प्रचलित हैं। साथ ही मारछा, तोल्छा आदि तिब्बतियन भाषा परिवार की बोलियाँ भी प्रयुक्त होती हैं। उत्तराखण्ड के ऊधमसिंह नगर, हरिद्वार, देहरादून आदि तराई क्षेत्रों में पहाड़ी जनसमुदाय के साथ-साथ उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, बंगाल आदि सभी प्रान्तों के लोग बसे हैं। वे अपने साथ अपनी बोली भाषा रीति-रिवाज एवं परम्पराओं को भी लेकर आये हैं। अत: यहाँ मिश्रित भाबरी बोलियाँ प्रचलित हैं।


    वर्तमान समय में यातायात व्यवस्था, संचार सुविधा तथा जीविकोपार्जन के लिए स्थान परिवर्तन आदि कारणों से भाषायी सम्पर्क एवं आदान-प्रदान निरन्तर बढ़ता जा रहा है। अब अलग-अलग स्थानों की इन बोलियों में वह अन्तर नहीं रह गया है जो पं. बद्रीदत्त पाण्डे या पं. हरिकृष्ण रतूड़ी के समय में था। आज कुछ ठेठ जनजातीय बोलियों को छोड़कर सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के लोग आपस में एक-दूसरे की बोली में अभिव्यक्त मन्तव्यों को भली भाँति ग्रहण कर सकते हैं। उदाहरणार्थ एक हिन्दी वाक्य- मैं मन्दिर से तुम्हारे लिए अपने हाथ से प्रसाद लाया हूँ- इस वाक्य के कुछ स्थानीय बोलियों में उच्चारण द्रष्टव्य हैं। -


    अल्मोड़िया - मैं मन्दिरबै तुमार लिजी आपुण हातल प्रसाद लै रयूं। (डॉ. रजनीश मोहन जोशी, चीनाखान, अल्मोड़ा)
    नैनताली - मैं मन्दिर बटी तुमर लिजी आपण हातुँल परसाद ल्यै रयूँ (डॉ. कल्पना पन्त, एजहिल नैनीताल)
    कुमाई - मि मन्दिर बठे तुमूहन अपना हाथैले प्रसाद ल्या रयूँ (डॉ. कीर्तिबल्लभ शक्टा, तल्लाचाराल चम्पावत)।
    सोर्याली - मैं मन्दिरहै तुमखिन आपना हातले परसाद ल्यै रयूँ (डॉ. रामसिंह, मूनाकोट, पिथौरागढ़।
    दनपुरिया - मैं मन्दिर तुमार लिजी आपण हातल परसाद ल्यै रयूँ (श्री आनन्दगिरि गोस्वामी, कपकोट, बागेश्वर)
    पछाई - मैं मन्दिरबै तुमर लिजी आपण हातल परसाद ल्या रछ्यू (पं. मथुरादत्त मठपाल, भिकियासैण, अल्मोड़ा)
    चमियाली - मि मन्दिरबै तुमूँ अपणा हाथेनिहीं प्रसाद ल्येके आयूँ (डॉ. भगवती प्रसाद पुरोहित कर्णप्रयाग चमोली)
    टिहराली - मैं मन्दिर बटी तुमूँक आपड़ा हाथसी प्रसाद ल्यायू छ (श्री शान्ति प्रसाद डंगवाल, घनसाली, टिहरी)
    पौड़ीयाली - मि मन्दिर भयै तुमखुणै आपड़ा हथूल प्रसाद ल्यौं च (श्री नागेन्द्र बड़थ्वाल, जयहरिखाल, पौड़ी) आदि।

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