कफ्फू चौहान (जीवनकालः 16वीं सदी का प्रारम्भ): उप्पूगढ़ (पट्टी जुवा उदयपुर, टिहरी गढ़वाल) का इतिहास प्रसिद्ध गढ़पति। आन-बान का धनी, स्वाभिमानी, मातृभूमि के रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग कर देने वाला अकेला वीर पुरुष राजा अजयपाल जब ई.सन 1500 से 1520 के मध्य गढवाल के लगभग सभी गढ़ों को अपने अधीन कर चुका था, तो विजय अभियान में उसकी नजर उप्पूगढ़ पर पड़ी। इसका गढ़पति उन दिनों चौहान वंशीय युवक कफ्फू चौहान था। कफ्फू चौहान अत्यन्त स्वाभिमानी था। उसे अपने गढ़ की स्वाधीनता प्राणों से भी प्यारी थी। राजा अजयपाल ने कफ्फू चाहान को बिना युद्ध किए अधीनता स्वीकार कर लेने का सन्देश भिजवाया। कफ्फू ने राजा का प्रस्ताव यह कहते हुए ठुकरा दिया कि "मैं पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ की तरह हूँ। मुझे किसी की अधीनता स्वीकार्य नहीं है।" कफ्फू की इस गर्वोक्ति पर क्रुद्ध होकर राजा ने सेना भेजकर उप्पूगढ़ पर चढाई कर दी। कफ्फू की मुट्ठी भर सेना राजा की विशाल सेना के आगे टिक न सकी। पूरा उप्पूगढ़ ध्वस्त हो गया। हजारों ललनाओं ने जौहर कर प्राणाहुति दे दी थी। कफ्फू को जीवित बन्दी बनाकर राजा के सम्मुख पेश किया गया। उसने फिर भी अधीनता स्वीकार नहीं की। राजा ने हुक्म दिया- "कफ्फू का सिर काटकर मेरे पैरों पर गिरा दो।" इससे पहले कि कफ्फू का सिर धड़ से अलग होकर राजा के पैरों पर गिरता, उसने मातृभूमि की मिट्टी मुंह में फांक ली और गर्दन को ऐसा झटका दिया कि दूर जा गिरी। यह दृश्य देखकर राजा अजयपाल स्तब्ध रह गए। ऐसे वीर, स्वाभिमानी, स्वाधीनता प्रेमी कफ्फू चौहान के मृत शरीर के आगे राजा बरबस बोल उठे- "वीर! तुम जीते, मैं हारा।" राजा ने स्वयं कफ्फू चौहान को मुखाग्नि दी। कफ्फू चौहान के इस मतवालेपन से स्थानीय लोग आज भी उसे कफ्फू झल्ली (सनकी) कहकर याद करते हैं। कुछ वर्षों पूर्व तक कई लोग उप्पूगढ़ को सौट्यालगढ़' कहते सुने गए। गढ़ के भग्नावशेष प्रायः लुप्त हैं।
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