जसवंत सिंह रावत | |
जन्म: | 17, जुलाई 1941 |
जन्म स्थान: | पौढ़ी |
पिता: | श्री गुमान सिंह रावत |
माता: | श्रीमती लीलावती |
व्यवसाय: | सैनिक |
सम्मान | मरणोपरांत महावीर चक्र |
उत्तराखण्ड की पावन भूमि एक ओर धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक अनुष्ठान स्थली रही है, वहीं यह भूमि अन्यानेक वीर एवं वीरांगनाओं की जन्म स्थली भी रही है। इस लाट सुबेदार बलभद्र सिंह नेगी, विक्टोरिया क्रास विजेता सुबेदार दरबान सिंह, विक्टोरिया क्रास विजेता रायफलमैन गब्बर सिंह रावत, कर्नल बुद्धीसिंह रावत, मेजर हर्षवर्धन बहुगुणा आदि के नाम सदा अमर रहेंगे। ऐसे बहादुरों की वीरता से पूर्ण इतिहास हमारे लिए गर्व का विषय है। इनके अदम्य साहस एवं वीरता ने उत्तराखण्ड का नाम ऊँचा किया है।
इस ऐतिहासिक लड़ी का एक अमूल्य हीरा, रायफलमैन जसवन्त सिंह गोर्ला रावत हैं, जिनकी वीरता पर भारतीय सेना को भी फक्र है और सेना इसकी याद में हर वर्ष 17 नवम्बर को नूरानांग दिवस मनाती है।
देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले रायफलमैन जसवन्त सिंह गोर्ला रावत का जन्म दिनांक 15.7.1941 को ग्राम बाडयू पट्टी खाटली, पौढ़ी (गढ़वाल) में हुआ। इनके पिता श्री गुमान सिंह रावत देहरादून में मिलेट्री डेयरी फार्म के कर्मचारी थे। उनकी माता का नाम लीलावती था। इनके भाई श्री विजय सिंह एवं रणवीर सिंह हैं।
नौवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उनके मामा श्री प्रताप सिंह नेगी, सेवानिवृत्त मेजर ने उन्हें 16 अगस्त, 1960 को चौथी गढ़वाल रायफल लैन्सडाउन में भर्ती करा दिया। उनकी ट्रेनिंग के समय ही चीन ने भारत के उत्तरी सीमा पर घुसपैठ कर दी थी। धीरे-धीरे उत्तरीपूर्वी सीमा पर युद्ध शुरू कर दिया। सेना को कूच करने के आदेश दिये गये। चौथी गढ़वाल रायफल नेफा क्षेत्र में चीनी आक्रमण का प्रतिरोध करने को भेजी गई।
जसवन्त सिंह के पूर्वज गढ़-काँडा-गुराडगढ़ के अधिपति वीर सेनानी भुपु रौत एवं तीलू रौतली थे। जो गढ़वाल के राजा के दरबारी थे। इन्होंने अपने अदम्य साहस व अनुकरणीय वीरता के कारण गढ़वाल के इतिहास में अपना नाम सम्मान से दर्ज कराया है। तीलू रौतेली को तो 'गढ़वाल की रानी लक्ष्मीबाई' भी कहा जाता है।
प्रशिक्षण समाप्त करते ही 17 नवम्बर 1962 को चौथी गढ़वाल रायफल को नेफा-अरुणाचल प्रदेश की टवांग वू नदी पर नूरनांग पुल की सुरक्षा हेतु लगाया गया था, पर चीनी सेना ने हमला बोल दिया। यह स्थान 14,000 फीट की ऊँचाई पर था, चीनी सेना टिडियों की तरह भारत पर टूट पड़ी। चीनी सैनिकों की अधिक संख्या एवं बेहतर सामान के कारण सैनिक हताहत हो रहे थे। दुश्मन के पास एक मीडियम मशीनगन थी, जिसे कि वे पुल के निकट लाने में सफल हो गये। इस एल.एम.जी. से पुल व प्लाटून दोनों की सुरक्षा खतरे में पड़ गई थी।
यह सब देखकर रायफलमन जसवन्त सिंह ने पहल की व मशीनगन को लूटने के उद्देश्य से अपने आपको स्वेच्छा से समर्पित कर दिया। तब उनके साथ लान्स नायक त्रिलोक सिंह व रायफलमैन गोपाल सिंह भी तैयार हो गये।
ये तीनों जमीन पर रेंग कर मशीनगन से 10-15 गज की दूरी पर ठहर गये। उन्होंने हथगोलों से चीनी सैनिकों पर हमला कर दिया। उनकी एल.एम.जी. ले आये और गोली बरसाने लगे। जसवन्त सिंह ने बहादुरी दिखाते हुए बैरक नं. 1, 2, 3, 4 एवं 5 से निरन्तर, कभी बैरक नं. 1 से तो कभी बैरक न. 2 से गोलियों की वर्षा कर शत्रु को 72 घंटे रोके रखा। वह कभी एक बंकर में जाता वहाँ से गोली चलाता, फिर दूसरे बंकर में जाता। उसे स्थानीय महिला शीला ने बड़ी मदद की। उसे गोला बारूद व खाद्य सामग्री निरन्तर उपलब्ध करवायी। वह देशभक्ति का दीवाना निरन्तर गोलियां चलाता रहा। उसे उस समय परमपिता परमात्मा ने असीम शक्ति प्रदान कर दी थी। उसकी पूर्वज वीर बाला तीलू रौतेली उसकी आदर्श थी। इस रणनीति के कारण दुश्मन यह समझता रहा कि भारतीय सेना बड़ी मात्रा में उन्हें रोक रही है।
1962 के इस भयंकर युद्ध में 162 सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गये। 1264 को दुश्मनों ने कैद कर लिया। 256 सैनिक बर्फीली हवाओं में तितर-बितर हो गये। उस समय भारतीय सेना के पास युद्ध के अनुकूल गोला-बारूद्ध, युद्ध का साजो सामान भी नहीं था और न ही उनकी तैयारी थी।
वहाँ पर मठ के गद्दार लामा ने चीनी सेना को बताया कि एक आदमी ने आपकी ब्रिगेड को 72 घंटे से रोक रखा है। इस समाचार के बाद उन्होंने चौकी को चारों ओर से घेर लिया और उसका सर कलम करके अपने सेनानायक के पास ले गये। चीनी सेना के डिब कमाण्डर ने सम्मान के साथ उसका शव सन्दूक में बंद कर एक पत्र के साथ भेजां कि "भारत सरकार बताये कि इस वीर को क्या सम्मान देंगे, जिसने 3 दिन व 3 रात तक हमारी ब्रिगेड को रोके रखा।" वीर तो वह है जिसकी वीरता का शत्रु भी सम्मान करे। तेजपुर से तवांग रोड पर 425 किमी पर शिलालेख पर वीरगति प्राप्त शहीदों के नाम अंकित हैं व उनकी स्मृति स्वरूप समाधि मंदिर बनाया गया है।
लैफ्टिनेन्ट जनरल कौल ने अपनी पुस्तक दि अनटोल्ड स्टोरी में लिखा है कि जिस तरह से चीन का यह युद्ध गढ़वाल रायफल के सैनिकों ने लड़ा, उसी तरह अन्य बटालियन भी युद्ध लड़ती तो इस युद्ध का परिणाम कुछ और ही होता। नेफा की जनता उसे देवता के रूप में पूजती है और उसे मेजर साहब कहती है। उसके सम्मान में जसवन्त गढ़ भी बनाया गया है। उसकी आत्मा आज भी देश के लिए सक्रिय है। सीमा चौकी के पहरेदारों में से यदि कोई ड्यूटी पर सोता है तो वह उसे चाटा मारकर चौकन्ना कर देती है।
हीरो ऑफ नेफा को मरणोपरान्त महावीर चक्र प्रदान किया गया एवं सेना द्वारा उसकी याद में हर वर्ष 17 नवम्बर को नूरानांग दिवस मनाकर अमर शहीद को याद किया जाता है। आज भी देश की चीन की सीमा पर जो कार्यवाही हो रही है। उससे देश को सावधान रहना चाहिए, क्योंकि चीन कभी भी पाकिस्तान से मिलकर देश की स्वतंत्रता पर आघात कर सकता है।