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    कत्यूरी और नागों की पहचान

    ‌कुमाऊं-गढ़वाल की धरती हमारे राष्ट्रीय सांस्कृतिक समन्वयन की प्रयोगशाला रही है। विशेषकर बद्रीकेदार क्षेत्र तो दो धर्म-सम्प्रदायों और दो दर्शनों की बुनियादी प्रेरणाओं का केन्द्र था। 'बद्री केदार' इन दो शब्दों में, पहले की प्रेरणा मुख्यतः वैष्णव मत की है और दूसरे की शैव मत की। यही नहीं इन दोनों पर उत्तराखण्ड के दो राजवंशो की पृथक-पृथक विरादरियों की धार्मिक पहचानें भी चस्पा हैं। ये दो विरादरियां है कत्यूरियों और नाग वंशियो की।


    ‌आज की तोलछा, मारछा और जाड आदि शौका विरादरियों कत्यूरियों की बहुत करीबीं रही है। जबकि कत्यूरियों की अपनी जातीय पहचान 'खशियों' में बची हुई है। हो सकता है कत्यूरी जाति में, राज्य शासन करने वाले मुखिया को किसी दूसरे ही समूह वाची संज्ञा से सूचित किया जाता रहा हो।


    ‌आज कत्यूरी शब्द तीन अर्थों में हमारी भाषा में जीवित है।


    ‌(1) जातिवाचक केंत्यूरा। (2) इलाका वाचक 'कत्यूर' और राजवंश का वाचक 'कत्यूरी'।


    ‌अपनी जाति कैत्यूरा लिखने वाले खशिया लोग उत्तरकाशी के रवांई और टिहरी गढ़वाल के जौनपुर परगनों में रहते हैं। लगता है कुमाऊं और गढ़वाल के अन्य इलाकों में वे दूसरी जातियों में परिवर्तित हो गए। कुमाऊं के 'सीरा' आंचल में मल जाति-मल, रैका, रणिका, बसेड़ा और बम आदि बहुत से रूपों में जीवित है। कत्यूरियों की जमात भी उन्हीं की तरह दूसरी जातियों के नाम आस्पद धरती गई होगी। एक इलाके के रूप में कत्यूर बागेश्वर की घाटी में शामाधुरा भराड़ी से लेकर सोमेश्वर तक फैला हुआ है। शासन के मुखिया के कुनबे के रूप में एक सौ वर्ष पूर्व ऐटकिंसन ने कत्यूरियों की पहचान अस्कोट के पाल रजवारों में की थी।


    ‌अपनी पहली (मूल जाति) को छोड़कर, दूसरी नयी धर लेने की यह प्रवृत्ति कत्यूरियों की ही तरह पुराने ऐतिहासिक नागवंशियों में भी दिखाई देती है। रवांई-जोंनसार और बावर के क्षेत्रों में चौहान जाति के खशियों का एक धड़ा अपने को 'नागवंशी' कहता है।


    ‌हमारे भागवद महापुराण में जो नाग राजा आए है, उनकी लोक में अलग-अलग विरूदों में पहचान होती है। उनके लिये प्रयुक्त होने वाला एक जातिवाची शब्द 'भारशिव' भी है।


    ‌आगे चलकर यह 'भारशिव' जाति दो कुलों में बंटी। एक 'शिवभर' के नाम से जानी गई दूसरी 'राजभर' के नाम से।


    ‌'राजभर' लोग, राजकाज के मुखिया बने थे। शिवभरों की राजकाज में दिलचस्पी नहीं रही। उन्होनें सांस्कृतिक अभियान चलाए। यह दूसरी बात है कि उनके सांस्कृतिक अभियानों के पीछे-पीछे राजभरों का राज्य विस्तार पाता गया। शिवभरों को यों हम एक सांस्कृतिक साम्राज्य का स्वप्न-निर्माता भले ही मान लें। वे हाथ में त्रिशूल लिये हुये, देश में साधुओं की तरह विचरते थे। हिन्दू धर्म के प्रचारक थे। जनता के बीच वट-वृक्षों के रोपण का प्रचार करते थे। पौधे भी बांटते थे। उनका मत "शैव" था। इसलिए शिवलिंगों की स्थापना करते थे। करवाते भी थे। शिवलिंगों को तराश, उन्हें ढो-ढुलवा कर मंदिरों मे थपवाते थे। शिवलिंगों का भार सिरों में ढाने के कारण ही उनको 'शिवभर' या 'भारशिव' कहा जाने लगा था।


    ‌कुशाण काल में इनका धार्मिक-साम्राज्य देश के इस कोने से उस कोने तक फैला। ईसा की दूसरी शताब्दी से लेकर सातवीं आठवीं शताब्दी में वर्द्धनवंश के अस्तित्व में आने तक उनका निरंतर अभ्युदय होता गया था।


    ‌आज हम अपने सांस्कृतिक धार्मिक देश को विभिन्न मठों, आम्नायों, मण्डलों, महा मण्डलों, क्षेत्रों आदि में विभाजित हुआ देखते हैं। देखने की यह 'दृष्टि' शिवभरों के दिमाग की ही उपज है। उनके द्वारा बनाये गए 'ग्रासरूट' को आद्य शंकराचार्य ने चौड़ा और पक्का किया। भक्ति आंदोलन के दौर में हिन्दू चेतना ने इसी सांस्कृतिक परिचय से देश को पहचाना और अपनी स्वातऩ्त्र्य-वृत्तिता की रक्षा की।


    ‌शिवभर लोग हिन्दू विचार-स्वातन्त्र्य के कायल थे। धार्मिक सांस्कृतिक साधनों से राज्याधिकार की लड़ाई लड़ते थे। शंकर तो इनके इष्ट देवता थे ही, गंगा के प्रति भी इनमें अटूट श्रद्धा की। एक 'मूर्ति' के रूप में गंगा का अंकन भार शिवों ने ही किया। इसे इस ढंग से कहना अधिक सही है कि संभवतःभारशिवों के शिल्पस्पर्श से ही पहली एक नदी मानवीयकृत हुई और उसे पत्थरों में उकेरने का व्यवसाय देशभर में फैलने लगा। मकर को धारण किये हुये गंगा की यह मूर्ति अप्रतिम है। गंगा, एक स्त्री की भांति अपने ऊपर दाहिने हाथ से एक घड़ा उठाए हुये है।


    ‌शिवभरों की ही विरादरियों के होने के कारण राजभरों ने अपने सिक्कों में वृषम (नंदी) व त्रिशूल उत्कीर्ण किये। वे नाग वंशी थे इसलिए नागों को भी सिक्कों में अंकित करते थे। अनेक राजाओं ने तो अपने नाम के साथ भी 'शिव नंदी' शब्द को भी जोड़ लिया था। भूत नंदी, शिशुनंदी और शिवनंदी नाम अपने सिक्कों में ढलवा कर वे यह कहना चाहते थे, 'जिस प्रकार नंदी शिव को ढोता है उसी प्रकार मेरा शरीर शंकर का भार वहन करे'


    ‌मध्य भारत में, राजभर (नागों) के हाथ से राज सत्ता निकली तो बाकाटकों के हाथ में गई। राजभर वहां से गंगा की घाटी में उत्तर की तरफ बढ़े थे। गंगा की घाटियों में उत्तर प्रदेश में इनकी छोटी छोटी ठकुराइयां तो 13वीं 14वीं शताब्दी तक अस्तित्व में थी।


    ‌राजभरों के नाम से हम जिन राजाओं के नामों से परिचित हैं वे बघेलखण्ड-बुंदेलखण्ड के इलाकों से गंगा यमुना के मैदानों में फैले थे। विशेषकर विन्ध्यांचल की श्रृंखलाओं से, गंगा के कछारों में, काशी कौशल से अहिच्छत्र तक उनके प्रसार के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते है।


    ‌इनकी धार्मिकता से बाकाटक भी चमत्कृत थे। इनकी कौम की प्रशस्ति में ताम्रपत्र में जो पंक्तियां बाकाटकों ने उकेरीं उसका पाठ है- "अंशभार सन्निवेशित शिवलिंगद्वाहन शिव सुपरितुष्ट समुत्पादित राजवंशानाम् पराक्रम अधिगत भागीरथी अमलजल मूर्धाभिशिक्तानां दशाश्वमेघ अवभृथ स्नानानाम्।"


    ‌बाकाटक कहना चाहते हैं कि यह ताम्र लेख उस राजवंश के अभ्युदय के इतिहास का साक्षी है जिसने (1) शिवलिंगों को अपने कंधो पर वहन करके शिव को भली भांति संतुष्ट किया था (2) जिसका राज्याभिषेक उस भागीरथी के पवित्र जल से हुआ था जिसे उन्होनें अपने पराक्रम से प्राप्त किया। (3) जिनहोने दश अश्वमेघ यज्ञ करके अवभृथ स्नाना किया था।


    ‌भारशिवों के दश अश्वमेघ्ज्ञ यज्ञों का स्मारक स्थान नाम ही काशी का 'दशाश्वमेघ घाट' है। इस स्थान की पहचान हो जाने के बाद, गंगा के मैदानों में, गंगा के उद्गम की तरफ उनके बढ़ाव का अनुमान आसान हो जाता है। गंगा के लिए प्रयुक्त हुआ 'भागीरथी' शब्द और उसे 'पराक्रम' से जीतने का व्यापक 'अर्थ' उत्तराखण्ड में उनकी पहुंच को सूचित करता है।


    ‌काशी में अश्वमेघ यज्ञ के कर्त्ताओं के लिये उत्तराखण्ड को ’काशीमय’ देखने की आकांक्षा स्वाभाविक थी। यह अनुमान करना गैर ऐतिहासिक नहीं होगा कि बाड़ाहाट का नाम बदलकर उत्तरकाशी करना और 'गोथल' का नाम बदलकर गुप्तकाशी करना भारशिवों के सांस्कृतिक अभियान का बिंदु रहा होगा। उत्तरकाशी और गोपेश्वर के शिव मंदिरों में, अपने पराक्रम से जीती हुई भागीरथी (गंगा) प्रदेश की विजय ध्वजाएं त्रिशूलों के रूप में गाड़ने वाले ये ही भार शिव नाग राजा हैं। गणपति नाग के द्वारा उत्कीर्ण करवाए गए उस त्रिशूल में स्कन्दपुराण, विभुनाग व अंशुनाग नाम इस विषय में किसी प्रकार के सन्देह की गुंजाइश नहीं रखते। गणेश्वर राजा ने तो बाड़ाहाट (उत्तरकाशी) में हिमालय के शिखर के समान ही दृप्त शिखर वाले शिवमंदिर का निर्माण किया। गणेश्वर के पुत्र गुह ने उस मंदिर के सामने भी गोपेश्वर जैसा ही विराट त्रिशूल गाढ़ा। लेख उत्कीर्ण किया और पराक्रम एवं पौरूष का प्रसार किया।


    ‌नाग जाति के इन भार शिवों ने नागों के नामों पर गांव बसाए। अंचलों के नागवाची नाम धरे। स्थानीय देवताओं के रूप में नागों को मान्यता दिलवाई। नागपुर, उरगम, नागराजा, नागनाथ जैसी पचासों नाम-संज्ञाएं, स्थान संज्ञाएं, उस जाति की यादगार को हमारी भाषा में सुरक्षित रखे हुये है। ये संज्ञाएं, नागजाति की धर्म भावना को भी रेखांकित कर रही है। ये नाम संज्ञाये मंदिरों की भी है, देवताओं की भी। धारों की भी है उतारों की भी। गांवों की भी है, पट्टी-परगन्नों की भी। खेतों के तोकों की भी है, कस्बों की भी। नागों की उलटी गंगा में आई महाबाढ़ की तलछट उत्तराखण्ड के हिमालयों में आज तक इन 'नामों' के रूप में बची हुई है।


    ‌बंदेलखण्ड के पठारों और गंगा के मैदानों में, स्थान-नामों के साथ जुड़े हुये 'भर' या 'भार' शब्दों से भी नागों (भारशिवों) के द्वारा बसाए गए स्थानों को पहचाना गया है। स्वर्गीय काशी प्रसाद जी जायसवाल ने उनके इतिहास के स्त्रोत सामग्री के रूप में मिले संकेतों से बघेल खण्ड में स्थित नागौद (नागौढ़) की यात्राएं की थी। वहां भारशिवों के नाम का स्मारक एक वीरान इलाका ही मौजूद मिल गया जिसे वहां के लोग 'भूभरा' करके जानते है। 'भूभरा' अर्थात 'भारशिवों' की धरती। भूभरा के जंगल में उन्हें एक मंदिर मिला था जिसे वहां के लोग 'भाकुल देव' नाम से जानते आए है। यह भाकुलदेव शब्द का ही परिवर्तित रूप था। उसके आस पास के स्थलों के सर्वेक्षण में जो 'भरौली' गांव मिला उसे उन्होने 'भारशिवों' का गांव माना था। भरों के 'घरों की अवली' (बाखली) होने से उसका यह नाम पड़ा था। उसके आस पास के स्थान भरहता, भरहुत, भरजुना आदि किसी न किसी तरह 'भरों' से अपना प्रत्यन्तीय जुड़ाव सूचित करते थे।


    ‌भाषा में बचे हुए स्थान नामों की तरह ही आज की जिन्दा जातियों में- उनके मिश्रण की प्रतीति कराने वाले लक्षण भी पहचान में आते हैं। उत्तर प्रदेश के फतेहपुर, प्रतापगढ़ सुल्तानपुर आदि जनपदों में अहीरों का एक फिरका अपने को 'भरवटिया' कहता है। यह 'भरों' के नशल की ओर संकेत करने वाला शब्द है। रायबरेली जिले के ओतिया, जियापुर, इन्होना, भीरवीपुर आदि गांवो के मुसलमानों के बीच घूमते हुए उन्हें स्वयं को 'भरसेयां मुसलमानों' की शाख से सम्बद्ध बताते हुए मैंने स्वयं सुना है। 'भरसेंया' अर्थात 'भारशिव'। प्रश्न उठता है मुसलमान, भारशिव कैसे हो गए?


    ‌हुआ यह कि सल्तनत काल में, विधर्मी उत्पीड़न से बचने के लिए भारशिवों के कमजोर तबकों ने मुसलमानी करा ली। धर्मान्तरीत होकर उन्होनें मुसलमानों की बिरादरियों में अपने को छिपाया और कहने लगे हम 'भरसेंया मुसलमान' है।


    ‌इस तरह के जातीय सम्मिश्रण मैदानों में ही नहीं पहाड़ो में भी होते रहे है। पहाड़ो में यह सम्मिश्रण मुसलमान कौमों के साथ सीधे सीधे नहीं अपितु उनके द्वारा मैदानों से भगाए गए या उत्पीड़ित होकर स्वयं भागे हुए लोगो का उत्तराखण्ड के मूल निवासियों के साथ हुआ।


    ‌भारशिव (नाग) उत्तराखण्ड पहुंचे तो पहले से वहां पर रह रही जातियों से मिले। बहुत बड़ी संख्या में यह सम्मिश्रण जिस इलाके में हुआ उसका नाम 'धरदार' एक पट्टी के रूप् में आज भी पहचाना हुआ है।


    ‌भर या भारशिव जाति या उपाधि से जिन्हे हम सूचित कर रहे है वे राजा ही नृंवशिक दृष्टि से देखने पर 'नाग' ठहरते है। बाकाटकों के एक लेख की पंक्ति इन दोनों की पर्यायवाचिता को सिद्ध करती है (भारशिवामेंके राजा भवनाग) अर्थात 'भारशिवों में एक राजा हुआ भवनाग'।


    ‌मूर्ति शिल्प में नागों का अंकन ऐसे होता है गोया वे आधे मिथक और आधे तिलिस्म रहे हों। लोक कथाओं गाथाओं में वे निजंधरी पात्र बनकर आते है। परिनिष्ठित साहित्य में वे आधे देवता और आधे मनुष्य है। धार्मिक अवदानों में देव, दनुज, नाग और मनुष्य हैं तो एक ही जैसे पर उनके गुण, कर्म, स्वभावों में भारी अंतर है। पुराणों ने उन्हे मनुष्य घोषित किया है और भाग्वद्पुराण में उनके राजाओं की सूची प्रस्तुत की है। उन्ही के संकेतों से नागों की ऐतिहासिकता को खोजने के प्रयत्न शुरू हुये। पुरातत्वज्ञों ने उनके सिक्के खोज निकाले और उनके द्वारा उत्कीर्ण मुर्तियों को पहचानने की शुरूआत हुई।


    ‌भारशिवों के कुलदेवता 'नागों' की आकृतियां भी साभिप्राय होती हैं । उनके शिल्प में ये नाग आकृतियां छत्र की तरह तनीं हुई हैं। छत्रवत् तने हुए नाग से ही 'अहिच्छत्र' शब्द बना है।


    ‌रूहेलखण्ड की 'बरेली' के स्थान नाम कि लिए इस शब्द का इस्तेमाल हमारे इतिहास में हुआ है। वहां अहिच्छत्र नाम के पुराने भग्न नगर को ही ढूंढ लिया गया है। यह नगर, नाग या भारशिवों के साम्राज्य के वहां तक फैलाव का साक्षी है। संस्कृत में अहिच्छत्र और देसी भाषा में 'भरौली' एक ही स्थान के लिए प्रयुक्त हुए दो शब्द हैं। दोनों एक ही 'जाति' के सूचक हैं।


    ‌नागपंचमी मूलतः भारशिव (नागों) का ही जातीय पर्व है। इस जाति की स्त्रियां निष्ठा और आस्था में अडिग होने की वजह से 'प्रतीक' जैसी बन गई। उनका नाम ले लेकर दूसरी जातियों की स्त्रियां उनकी जैसी दिखने के लिए मांग में सिंदूर भरने लगी। यह रिवाज मूलतः नाग स्त्रियों में प्रचलित था। इसलिए सौभाग्य सूचक सिंदूर भरी मांग का 'अहिबात' शब्द से अभिहित करने का रिवाज चला आता हैं।


    ‌भारत में पान की खेती करने का ढंग नाग जाति का विकसित किया माना जाता है। उसी प्रकार शिवलिंगों में डालने के लिए, गंगाजल को घड़ो मे भरकर कांवरों से ढोकर उत्सव बनाने का चलन भी भारशिवों के धार्मिक अभियानों का हिस्सा रहा है। गढ़वाल के फेकवाल गंगा जल को देश भर में, घर घर पहुंचाने का रिवाज जिन्दा रखे हुये है। हो न हो ये भारशिवों की किसी पुरानी शाखा से जुड़े हुये हों।


    ‌लगता है उत्तराखण्ड की भूमि में सांस्कृतेतिहासिक संक्रमण का महत्वपूर्ण युग भारशिवों (नागों) के उस इलाके में प्रविष्ट होने के साथ ही शुरू हुआ। उन्होने वहां की स्थानीय पूजा पद्धतियों का शैवीकरण किया। लोक देवताओं के बीच शंकर की प्रतिष्ठा की। झांकर सेम, मलैनाथ, अलाईमल जैसे शिव स्वरूप पूर्णतः स्थानीय हैं। इनमें, शैव मान्यताओं का कुछ कच्चापन जैसा देखने में आता है तो इसलिये कि समन्वय और समंजन की फिनिसिंग अभी भी पूरी नहीं हुई है। दूसरी ओर पंचकेदारों, जागेश्वर बागेश्वर में कहीं भी कच्चा और खुरदुरापन नहीं दिखता है तो इसलिये कि पाशुपतों, लिंगायतों, लकुलीशों आदि के कितने ही दक्ष हाथों ने भारशिवों की रही सही को सुधारा हुआ है।


    ‌धार्मिक सम्प्रदायों के इस 'सुधार' में अपने 'कत्यूरी' तथा 'भारशिव' (नाग) चन्दन की तरह घिसे हैं। घिसते घिसते उनकी जातियां रूपान्तरित ही हो उठीं। उन्हे आज हम या तो मंदिर शिल्प से पहचानते हैं या जिन्दी जातियों में बचे नृवंशिक अवशेषों में अथवा बद्रीकेदार के मंदिरों में उनके वंशधरों को, एक जमाने में दिये गये सेवा पूजा के अन्तरंग और निजी किस्म के अधिकारों की शिनाख्त में।


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