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    हरिद्वार - र्तीथ स्‍थल

    उत्तराखण्ड आदिकाल से धार्मिक एवं आध्यात्मिक साधना का केन्द्र रहा है। इसके कण-कण में बिखरा नैसर्गिक सौंदर्य जहाँ सैलानियों को अभिभूत कर देता है, वहीं प्रकृति एवं मानव जीवन के रहस्यों की खोज हेतु ऋषि-मुनि एवं जिज्ञासु यायावर यहाँ खिंचे चले आते हैं। विद्वानों का मानना है कि देवताओं का निवास स्थान स्वर्ग यही क्षेत्र था। पवित्र तीर्थों के कारण इसे 'देवभूमि' कहा जाता है। यह आर्य सभ्यता से पूर्व देवयक्ष, किन्नर, किरात, नाग, गंधर्व आदि जातियां निवास करती थीं।


    देश की प्राचीन सप्तपुरियों में से एक हरिद्वार पर्यटन और तीर्थाटन की दृष्टि से उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि विश्व का एक बड़ा केन्द्र है। हरिद्वार केवल चार धामों का प्रवेशद्वार ही नहीं, बल्कि जीवनदायिनी गंगा के किनारे बसे इस नगर को मोक्ष प्रदान करने वाला तीर्थ भी माना जाता है। सप्तपुरियों में हरिद्वार की गणना 'मायापुर' नाम से की गई है-


    अयोध्या, मथुरा, माया, काशी कांची अवन्तिका:
    पुरी द्वारावतोश्चैव सप्तैते मोक्षदायिका।


    अर्थात् अयोध्या, मथुरा, मायापुर (हरिद्वार), वाराणसी, कांची कामकोटि पीठ, अवन्तिका (उज्जैन) और द्वारिकापुरी वह सप्तपुरियां हैं जो मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करती हैं। इस श्लोक में अयोध्या और मथुरा के बाद मायापुर यानि हरिद्वार को तीसरी पुरी के रूप में स्थान दिया गया है।


    नगर के उद्भव के सम्बन्ध में मिले साक्ष्यों के अनुसार प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने सन् 634 में इसी मायापुरी (हरिद्वार) को मो-यू-लो की संज्ञा दी थी। कनिंघम ने मोरों की बहुतायत के कारण इस स्थान को मयूरा अथवा मयूरपुर कहा। तमतिपुर से उत्तर-पूर्व की ओर गंगा के पूर्वी तट पर मो-यू-लो नगर अवस्थित था। नगर की परिधि 30 ली से अधिक (साढ़े तीन मील) थी। नगर के समीप गंगा के निकट ही एक बड़ा देव मंदिर था। इसके समीप एक कुण्ड था। इसमें गगा से एक कृत्रिम नहर द्वारा जलापूर्ति होती थी। नगर को 'गंगाद्वार' भी कहा जाता था।


    इस पवित्र भूमि की महत्ता को मापने मुगलशासक तैमूर लंग इतिहासकार सर्फुद्दीन के साथ सन् 1398 में यहाँ आया था। उसने उस समय के कुंभ मेले में भारी लूटपाट भी की। सफुद्दीन ने हरिद्वार को 'कुपिला' नाम दिया था। तैमूर के हमले के बाद सहारनपुर एवं दिल्ली में हुए परिवर्तन हरिद्वार समेत आसपास के क्षेत्र में प्रभावी रहे। पन्द्रह सदी के मध्य में संपूर्ण उत्तर भारत लोदी सुल्तानों के कब्जे में आ गया। सन् 1526 में मुगल शासक गयासुद्दीन बाबर ने इब्राहिम लोदी को हराकर भारत से लोदी सल्तनत का अन्त कर दिया। साथ ही दिल्ली पर अधिकार कर मुगलवंश की नींव रखी। उस दौर में हरिद्वार क्षेत्र पर मुगलिया सल्तनत थी। अकबर के शासन काल में 'गंगाद्वार' पूर्णतया 'हरिद्वार' हो गया था।


    ह्वेनसांग द्वारा उल्लिखित मो-यू-लो का अबुल फजल लिखित 'आइना-ए अकबरी' में 'मायापुर' नाम से जिक्र है। अबकर के शासनकाल में हरिद्वार में तांबे के सिक्के ढालने की टकसाल थी। यह भी उल्लेखनीय है कि अकबर दैनिक जीवन में गंगाजल का प्रयोग करता था। हरिद्वार से प्रतिदिन सीलबंद घड़ों में गंगाजल ऊँटों से दिल्ली व आगरा भेजा जाता था। बादशाह का विश्वस्त व्यक्ति यहां तैनात था जिसकी देखरेख में गंगाजल भरा एवं सील किया जाता था।


    पुराणों में हरिद्वार का उल्लेख 'गंगाद्वार' नाम से मिलता है। कहा जाता है कि इसी स्थान पर भगवान शंकर का विवाह कनखल के राजा दक्ष पुत्री सती से हुआ था। बाद में सती बिन बुलाए राजा दक्ष के यज्ञ में आई परन्तु जब उन्होंने वहाँ पति का अपमान देखा तो यज्ञ की की आग में कूद गई।


    सती की दुर्दशा से भगवान शिव इतने विचलित हुए कि उनके गणों ने दक्ष का वध कर दिया। खुद शिव क्रोधित होकर तांडव करने लगे और सती की देह को लेकर ब्रह्मांड में विचरण करने लगे। जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे, शक्तिपीठ स्थापित हुए। देशभर में ऐसे 52 शक्तिपीठ हैं। हरिद्वार में सती का नाभिस्थल गिरा और वही आज हरिद्वार की अधिष्ठात्री स्थल देवी के नाम से विख्यात है।


    हरिद्वार की महिमा का वर्णन शिवपुराण सहित अन्य पुराणों में मिलता है। प्राचीन काल में बारह योजन लम्बे और तीन योजन चौड़े क्षेत्र को हरिद्वार नाम दिया गया। पूर्व में नील पर्व, पश्चिम में वाषेणी नदी, उत्तर में रत्नस्तंभ और दक्षिण में नागतीर्थ तक हरिद्वार का क्षेत्र माना जाता है। गंगा जब पृथ्वी पर उतरी तब हरिद्वार में सप्तऋषियों के सात आश्रम होने के कारण सात धाराओं में विभक्त होकर बहती थी। तीन धाराएं तो काल की गति में समा गई, अपितु चार धाराएं अभी भी दिखाई पड़ती हैं। यह नगर गंगा के दाहिने तट पर शिवालिक पर्वतमाला के बिल्व पर्वत तथा नील पर्वत के मध्य लम्बाई में बसा हुआ है। यहाँ की प्राकृतिक सुषमा नयनाभिराम दृश्य, मनोहारी गंगातट और आध्यात्मिक केन्द्रों की छटा निराली है। आदिकाल से ही यह नगरी समूची मानवता को धर्मज्ञान और शांति का संदेश देते आई है। शहर को एक-दूसरे से जोड़ने वाले 42 पुलों के कारण इसे पुलों की नगरी के रूप में भी जाना जाता है।


    हरिद्वार में कई रमणीक पर्यटन स्थल आध्यात्मिक केन्द्र और मोक्ष प्रदान करने वाले घाट हैं। यहाँ की गंगा आरती देशभर में प्रसिद्ध है। प्रातःकाल प्रथम पहर से देर रात तक गंगा के सुन्दर, व्यवस्थित और जगमग घाटों पर श्रद्धालु सांसारिक कष्टों से मुक्ति, सुखसमृद्धि तथा मोक्ष की कामना लिए स्नान करते हैं। पूजा-अर्चना के बाद पुष्पों से सुसज्जित दोने में प्रकाशमान दीप के रूप में मानो अपने सभी कष्टों को गंगा में प्रवाहित कर देते हैं। इसके पवित्र तट पर साधु-संत और विद्वान मंत्रों और आहुतियों से विश्व कल्याण की कामना करते हैं तथा भक्तजन सांसारिक मायाजाल से स्वयं की मुक्ति के लिए गंगा में डुबकी लगाते हैं।


    हर की पौड़ी हरिद्वार का हृदय स्थल है। गंगा के आगमन से पूर्व इस स्थान को 'ब्रह्मकुंड' के नाम से जाना जाता था। राजा विक्रमादित्य के भाई भृतहरि ने यहाँ तपस्या करके अमृत प्राप्त किया था । उनकी स्मृति में विक्रमादित्य ने यहाँ पैड़ियों का निर्माण कराया। हरिद्वार आए पर्यटक और तीर्थयात्री यहाँ स्नान तथा संध्याकालीन आरती में शामिल होने को अपना सौभाग्य समझते हैं।


    कुशावर्त यहाँ का दूसरा प्रमुख स्थल है। कुशावर्त पर देव-पितृ दोनों के ही लिए कर्मकांड होते हैं। हजारों यात्री यहाँ प्रतिदिन अपने पितरों का तर्पण करते हैं। भगवान दत्तात्रेय ने इसी स्थान पर तपस्या की थी। ब्रह्मकुंड के दक्षिण में सुभाषघाट से सटा गऊघाट है। मान्यता है कि इस घाट पर स्नान करने से मुनष्य गौहत्या के पाप से भी मुक्ति पा लेता है।


    शिवालिक पर्वतमाला के पूर्वी शिखर पर चंडीदेवी मंदिर तथा पश्चिमी शिखर पर मंसादेवी मंदिर स्थित है। ब्रह्मा के मन से उत्पन्न तथा ऋषि जरत्कारू की पत्नी सर्पराज्ञी देवी माँ मंसा की यहाँ तीन मुख और पाँच भुजाओं वाली मूर्ति स्थापित है। चंडी देवी तंत्र-मंत्र की सिद्धदात्री देवी भी मानी जाती है। उन्होंने इसी स्थान पर शुभ-निशुभ नामक असुरों का वध किया था। चंडी देवी से ऊपर हनुमान की माता अंजनी देवी का मंदिर है। मंसादेवी व चंडीदेवी मंदिर जाने के लिए रज्जू मार्ग (रोपवे) उपलब्ध है।


    शिव के प्रमुख स्थानों में बिल्वकेश्वर महादेव का नाम लिया जाता है। यह मंदिर शिवालिक पर्वत की तलहटी पर स्थित है। हिमालय की पुत्री शैलजा ने भगवान शिव की प्राप्ति के लिए इसी स्थान पर घोर तपस्या की थी। भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और बाद में उनका वरण किया। हर की पैड़ी से कुछ ही दूरी पर भीमगोडा का ऐतिहासिक कुंड स्थित है। वनगमन करते हुए पांडव इस स्थान पर आए थे। पानी ने मिलने पर भीम ने अपने घुटने का प्रयोग कर धरती से जल निकाला था।


    हरिद्वार का उपनगर कनखल वह स्थान है जहाँ भगवान शिव अपनी बारात लेकर सती को ब्याहने आए थे। अब यह पूरा क्षेत्र मंदिर परिसर में परिवर्तित हो गया है। यहाँ स्थित दक्ष मंदिर के दर्शनों को श्रद्धालु बड़ी संख्या में आते हैं। सप्तसरोवर मार्ग पर नौमंजिला भारतमाता मंदिर स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी द्वारा स्थापित किया गया है। यह मंदिर इस मायने में विशिष्ट है कि यहाँ समूचे भारत का दर्शन एक साथ हो जाता है। केवल देवी-देवताओं की ही नहीं अपितु देश सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाले महापुरुषों की प्रतिमाएँ भी यहाँ स्थापित की गई है।


    शिवालिक पर्वतमाला के सुरकूट पर्वत पर सुरेश्वरी देवी मंदिर स्थित है। यह स्थान राजाजी पार्क के वन क्षेत्र में पड़ता है। भगवती के इस मंदिर में नवरात्रों के दौरान मेला लगता है। नजीबाबाद मार्ग पर प्राचीन गौरीशंकर मंदिर शिव-पार्वती के प्रेम का प्रतीक है। पुराणों के मुताबिक इस स्थल पर खुद भगवान शिव ने पार्वती को पाने के लिए घोर तपस्या की थी। गौरीशंकर के पास ही एक पहाड़ी पर नीलेश्वर मंदिर विद्यमान है। कहा जाता है कि भगवान शंकर श्रावण मास में यहाँ स्वयं विराजते हैं।


    आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा स्थापित 'शांतिकुज' शिक्षा, साधना और आध्यात्म के प्रमुख केन्द्र के रूप में विश्व विख्यात है। यहाँ गायत्री माता का भव्य मंदिर तथा सप्तऋषियों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। यहाँ शरीर, मन और अन्त:करण को स्वस्थ व समुन्नत बनाने के लिए वातावरण, मार्गदर्शन और शक्ति प्राप्त करने दुनिया भर क के साधक आते हैं। भारतीय संस्कृति की परपराओं के पुनर्जागरण का महत्वपूर्ण कार्य शांतिकुंज कर रहा है। इस अभियान में लाखों की संख्या में गायत्री साधक जुड़े हैं। सनातन धर्म की पोषक रही यह नगरी सिक्खों के तीसरे गुरु श्री अमरदास की तपस्थली भी है। कनखल स्थित सतीघाट में जिस स्थान पर गुरु महाराज ने तप किया था, वहाँ सिक्खों का ऐतिहासिक गुरुद्वारा है। इसका पौराणिक नाम तीजी पातशाही का गुरुद्वारा है।


    हरिद्वार में कुंभ, अर्द्धकुंभ के अलावा सालभर पड़ने वाले प्रमुख स्नान पर्वों पर लाखों श्रद्धालु गंगा स्नान के लिए आते हैं। ऐसी धारणा है कि कुंभ के समय पृथ्वी पर अमृत उतरता है। समुद्र-मंथन के दौरान समुद्र से निकला अमृतकलश हर की पैड़ी पर भी रखा गया था। गंगा की धारा से मिले अमृत से भगवती गंगा अमृतमयी हो गई। इसी अमृत को पाने की चाह में श्रद्धालु हर की पैड़ी में डुबकी लगाकर पुण्य अर्जित करते हैं। प्रत्येक 12 वर्ष बाद कुंभ के अवसर पर विश्वभर से करोड़ों श्रद्धालु यहाँ गंगा स्नान के लिए आते हैं। हरिद्वार में प्रतिवर्ष 2 करोड़ पर्यटक और तीर्थयात्री पहुँचते हैं। कुंभ और अर्द्धकुंभ के दौरान यह संख्या दोगुनी हो जाती है। चूंकि इस नगरी को पंडों और संतों का नगर भी कहा जाता है इसलिए गेरूए रंग की संस्कृति यहाँ चारों ओर दिखाई पड़ती है।


    लेखक - ममता रावत, मल्‍ला कृृृृष्‍णापुर, तल्‍लीताल, नैनीताल
    संदर्भ -
    पुरवासी - 2009, श्री लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब), अल्मोड़ा, अंक : 36


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