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    गुसाँई सिंह दफौटी

    हमेशा संघर्षों के पर्याय बने रहे गुसांई सिंह दफौटी का जन्म 6 जून 1954 को बागेश्वर जिले के नायल दफौट गाँव में हुआ। गाँव के संघर्षपूर्ण जीवन के बाद भी में उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की और एम.ए.करने के बाद एल.एल.बी किया। लेकिन छात्र जीवन से ही जनता की परेशानियों के लिए खड़े रहने वाले दफौटी ने वकालत करके आरामदायक जीवन व्यतीत करने की बजाय जनसंघर्ष का रास्ता चुना।


    बागेश्वर जिला बनाओ आदोलन


    अल्मोड़ा जिला तब काफी बड़ा था और दूरदराज के लोगों को जिला मुख्यालय जाने के लिए 150 से 200 किलोमीटर तक की यात्रा करनी पड़ती थी। लोगों को होने वाली विकट परेशानियों को देखते हुए दफौटी ने 1982 में बागेश्वर को अल्मोड़ा से अलग कर नया जिला बनाने की माँग के लिए लोगों को प्रेरित और लामबंद करना शुरू किया। शुरूआत में लोगों में एक हिचक थी कि आंदोलन करने के बाद बागेश्वर जिला बनेगा भी या नहीं ? और तीन सौ किमी से भी ज्यादा दूर बैठी तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार को लखनऊ में बागेश्वर के लोगों की आवाज सुनाई भी देगी या नहीं? लेकिन दफौटी की दृढ़ इच्छाशक्ति के आगे लोग लामबन्द होते गए और बागेश्वर जिला बनाओ-संघर्ष समिति का गठन किया गया। यह आंदोलन 1981-1997 तक लगातार चलता रहा। इसी आंदोलन के तहत दफौटी ने 1989 में 12 दिन का आमरण अनशन किया। अनशन के दौरान पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और वे 45 दिनों तक अल्मोड़ा जेल में बंद रहे। उन्हें 1991 में एक बार फिर 28 दिन जेल में बिताने पड़े। जिला बनाओ आंदोलन 1992 में एक बार फिर तेज हुआ तो दफौटी ने आंदोलन के दौरान आत्मदाह का प्रयास किया। इस बार उन पर एक दर्जन से भी ज्यादा संगीन धाराएँ लगाकर जेल भेजा गया।


    उन्होंने अल्मोड़ा जेल में ही आमरण अनशन शुरू कर दिया। प्रशासन ने अनशन तुड़वाने का प्रयास किया लेकिन सफल नहीं हुआ। इस दौरान लोग बड़ी संख्या में उनसे मिलने अल्मोड़ा जेल हर रोज जाते रहे। इससे परेशान अल्मोड़ा जिला प्रशासन ने उन्हें बरेली के केन्द्रीय कारागार भेज दिया। पुलिस ने कई तरह से यातनाएं देकर दफौटी के मनोबल को तोड़ना चाहा, लेकिन वे नहीं तोड़ पाए। इस बार उन्हें पूरे सात महीने जेल में बिताने पड़े। इस बीच उत्तराखण्ड आंदोलन एक बार फिर तेज हुआ तो दफौटी उसमें कूद पड़े और 1994 में आंदोलन के दौरान उन्हें एक बार फिर गिरफ्तार किया गया और तीन दिन अल्मोड़ा जेल में बन्द रहे। जेल से रिहा होने के बाद भी उनकी सक्रियता उत्तराखण्ड आंदोलन और बागेश्वर जिला बनाओ आंदोलन में लगातार बनी रही। बागेश्वर जिले के लिए 1997 में उन्होंने एक बार फिर अनशन की राह पकड़ी। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने जब 1997 में बागेश्वर को अलग जिला बनाने की घोषणा की, तब जाकर दफौटी का बागेश्वर जिला बनाओ आंदोलन समाप्त हुआ।


    टनकपुर-बागेश्वर रेल लाइन आंदोलन


    बागेश्वर अलग जिला भी बन गया और उत्तराखण्ड भी अलग राज्य के रूप में सामने आ गया तो गुसांई सिंह दफौटी के अन्दर का आंदोलनकारी चुप नहीं बैठा और उन्होंने 2004 से टनकपुर से बागेश्वर तक रेल लाइन के निर्माण का आंदोलन शुरू कर दिया। तब से वह लगातार इस रेल मार्ग के निर्माण की मांग को लेकर धरने, प्रदर्शन, क्रमिक अनशन करते रहे। उनकी आंदोलन करने की ताकत से सभी परिचित थे, इसी कारण पहले के आंदोलन की तरह बागेश्वर-टनकपुर रेल लाइन बनाओ आंदोलन में भी जन सहयोग उन्हें मिलता रहा। पहाड़ को शराब में डुबोकर राजस्व प्राप्त करने की सरकारी नीति के विराध में भी दफौटी हमेशा आगे रहे। इसी कारण उन्होंने कई बार इसके खिलाफ भी आंदोलन चलाया। इसके लिए वह रातदिन लोगों में जागरूकता फैलाने का भी कार्य करते थे। दफौटी कहते थे - गोरे अंग्रेज गए तो काले अंग्रेजों ने हमें गुलाम बना दिया।


    मृत्‍यु


    उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन, बागेश्वर जिला बनाओ हर आंदोलन और दूसरे जनांदोलनों में अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित कर एक आंदोलनकारी के रूप में ही पहचान बनाने वाले गुसांई सिंह दफौटी ने लम्बी बीमारी के बाद अन्तत: 27 सितम्बर, 2014 को मौत के आगे हार मान ली। किडनी की बीमारी से पीड़ित 62 वर्षीय दफौटी ने हल्द्वानी मेडीकल कॉलेज में अंतिम सांस ली।


    जन संघर्षों के लिए अपना पूरा जीवन अर्पित कर देने वाले दफौटी को प्रदेश सरकार ने जीवन के आखिरी दिनों में पूरी तरह से भुला दिया। सरकार की ओर से राज्य आंदोलनकारी घोषित होने के बाद भी उनकी किडनी की बीमारी का सही इलाज नहीं हो पाया। सरकार ने दफौटी को उचित इलाज के लिए समय से एम्स या दूसरे अत्याधुनिक चिकित्सालयों में भेजने की कोई जहमत नहीं दिखाई। इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि प्रदेश शासन को दफौटी के गंभीर रूप से बीमार होने की पूरी जानकारी थी, इसके बाद भी शासन की ओर से कोई उचित कदम नहीं उठाया गया। उनकी पत्नी नीमा दफौटी कहती हैं, 'अगर प्रदेश सरकार ने उनके इलाज में मदद कर दी होती तो एक जीवट आंदोलनकारी हमारे बीच में आज भी होता।' हमारी अपनी सरकारें अपने लोगों के लिए क्यों इतनी असंवेदनशील होती जा रही हैं?

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