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    द्वाराहाट मंदिर समूह

    केदारखण्ड में वर्णित हिमालय के पाँच खण्डों में वर्तमान उत्तराखण्ड केदार और मानसखण्ड का संयुक्त रूप है। प्राचीनकाल से ही उत्तराखण्ड ऋषि मुनियों की धार्मिक जिज्ञासा व आध्यात्मिक शांति का स्थल रहा है। महाकाव्यों विशेषत: रामायण-महाभारत में उल्लेखित आख्यानों के आधार पर यह निश्चित है कि यहाँ कई शताब्दी पूर्व तीर्थस्थल विकसित हो चुके थे।


    उत्तराखण्ड क के कुमाऊँ मडल में जिला मुख्यालय अल्मोड़ा से 60 कि०मी० उत्तर पश्चिम में द्वाराहाट अवस्थित है। यह स्थल समुद्र तल से 1674 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। द्वाराहाट के उत्तर में द्रोणागिरि (दुनागिरि) का प्रसिद्ध मंदिर है, जहाँ लोग मन्नत मानते हैं। द्वाराहाट में हाट शब्द हट्ट का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ बाजार होता है। वर्तमान समय में वहाँ एक छोटा बाजार प्राचीन हाट शब्द की सार्थकता को सिद्ध करता है। जिसमें स्थानीय लोग तथा पर्यटक अपनी आवश्यकताओं की आपूर्ति कर लेते हैं। ताराचन्द्र त्रिपाठी ने ऐतिहासिक नगर ब्रह्मपुर की पहचान कुमाऊँ के द्वाराहाट या प्राचीन हाट वमनपुरी को ब्रह्मपुर का वर्तमान रूप माना है। द्वाराहाट में बहुत दूर तक पुराने नगर के चिन्ह मिलते हैं और मंदिरों की संख्या दर्जन के करीब होगी। ये मंदिर बिल्कुल खाली हैं। जिन मंदिरों में मूर्तियाँ हैं, वे भी बहुत कम मात्रा में तथा कुछ बची हुई, टुटी हुई अवस्था में हैं। उत्तराखण्ड क के अन्य स्थलों की भांति द्वाराहाट का भी प्रमाणिक इतिहास प्राप्त नहीं होता। उत्तराखण्ड में कत्यूरी राज्य का अभ्युदय पूर्व मध्यकाल में हुआ, जिसकी राजधानी जोशीमठ थी। जो कालान्तर में कुमाऊँ के कार्तिकेयपुर में स्थानान्तरित कर दी गई। कुमाऊँ का इतिहास रचने में सहायक ऐतिहासिक विवरण सातवीं शती ई० के अन्तिम भाग से प्राप्त होते हैं। कत्यूरी कुमाऊँ के सर्वप्रथम ऐतिहासिक शासक जान पड़ते हैं। जिनकी उपलब्धियों के कुछ प्रमाण आज भी मिलते हैं। लगभग 11 वीं शताब्दी में केन्द्रीय शक्ति के क्षीण हो जाने के कारण कत्यूरी साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया तथा यह द्वाराहाट, डोटी, सीरा जैसे क्षेत्रों में विभाजित हो गया। इन सभी से द्वाराहाट के कत्यूरी हमारे समक्ष महान निर्माता के रूप में प्रसिद्ध हैं। द्वाराहाट एवं इसके समीपवर्ती क्षेत्रों से प्राप्त अभिलेखों से निम्न राजाओं के होने की पुष्टि होती है।


    गुर्जर देव, सुधार देव, मानदेव देव तथा सोमदेव


    इनमें से गुर्जर देव महत्वपूर्ण राजा थे। द्वाराहाट में गुर्जर देव ने अपने शासनकाल में एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। उत्तराखण्ड के समस्त मन्दिरों से अलग बाह्य अलंकरण के लिए यह मंदिर विशेष प्रसिद्ध है।


    मंदिर वास्तुशिल्प -


    उत्तराखण्ड के अनेक जिलों में विभिन्न प्राचीन मंदिर फैले हुए हैं। इन मंदिरों का आरम्भिक काल छठी-सात शती ई में रखा जा सकता है। मंदिर निर्माण की ये प्रक्रिया मध्य काल तक चलती रही। उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मण्डल के द्वाराहाट बाजार से लगभग एक किलोमीटर दूर द्वाराहाट गाँव में छ: मंदिर समूह स्थित हैं -


    1. गूजर देवाल -


    gujjartemple

    गूजर देवाल मंदिर का निर्माण गुर्जर देव ने अपने शासनकाल में करवाया था। बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी राजाओं के शासन काल में गूजर नामक वैश्य ने करवाया था। गूजर देवाल का निर्माण चबूतरे/जगती के ऊपर किया गया है। जगती में जाड्यकुम्भ, कर्णिका, पद् पपत्र, गजथर, नरथर का अलंकरण किया गया है। कुमाऊँ के देवालयों में गूजर देवाल के अतिरिक्त बालेश्वर सुग्रेश्वर (चंपावत) व कटारमल (अल्मोड़ा) में ही जगती प्रावधान है। ऊर्ध्वछंद योजना में अलंकृत जघा भाग है। नौटियाल के अनुसार जघा भाग में अंकित प्रतिमाएँ जैन शैली के अनुरूप दर्शायी गयी हैं। मंदिर के खण्डित शिखर को देखकर प्रतीत होता है कि यह उरूश्रृगों से युक्त रहा होगा। तलछंद योजना में गर्भगृह अंतराल व अर्धमंडल है। गर्भगृह प्रतिमा विहीन है। प्रवेश द्वार का उत्तरंग में सप्‍तमातृका का अंकन है। स्‍थापत्‍य की शैली से यह देवालय 14 वीं शताब्‍दी में निर्मित प्रतीत होता है।


    2. रतनदेव मंदिर समूह -


    ratndevtemple

    इस मंदिर में नौ मंदिर हैं। यह सभी देवालय रेखा शिखर शैली में निर्मित हैं। ऊर्ध्वछंद योजना में खुर, कुम्भ, कलश तथा कपोताली से अलंकृत वेदीबंध के ऊपर जंघा भाग निर्मित है। मंदिर का शुकनाश सादा एवं शिखर त्रिरथ है। शिखर के शीर्ष में ग्रीवा व आमलक हैं। कुछ मंदिरों में अर्द्धमंडप भी निर्मित हैं।


    3. बद्रीनाथ मंदिर समूह -


    Badrinathtemple

    मंदिर के तलचंद योजना में गर्भगृह अंतराल एवं मंडप निर्मित है। ऊर्ध्वछंद योजना में वेदीबंध के ऊपर उद्गम युक्त रथिका से युक्त जंघा भाग है। कपोताली एवं अंतरपत्र युक्त वरण्डिका के ऊपर पंचरथ रेखा शिखर है। शिखर का कर्ण पाँच भूमि आमलकों से युक्त हैं। शुकनाश सादा है। उत्तरंग में चतुर्भुजी गणेश का अंकन किया गया है। गर्भगृह में चतुर्भुजी विष्णु की स्थानक प्रतिमा स्थापित है। बद्रीनाथ मंदिर के समीप दक्षिणाभिमुख लक्ष्मी मंदिर है। जो कि रेखा शिखर शैली में निर्मित है।


    4. कचहरी मंदिर समूह -


    Kacheri

    यह मंदिर समूह 12 मंदिरों से युक्त हैं। तलछंद योजना में गर्भगृह, अतराल तथा अर्द्धमंडप निर्मित है। ऊर्ध्वछंद योजना में वेदीबंध, जंघा व शिखर निर्मित हैं। त्रिरथ शिखर के ऊपर आमलक व चन्द्रशिला स्थापित है। शुकनाश अधिकांश सादे हैं। गर्भगृह प्रतिमाविहिन है। अर्द्धमंडप चार स्तम्भों पर आधारित है। स्तंभ आधार अष्टकोणीय तथा ऊपर वृत्ताकार है। अर्द्धमंडप शीर्ष में प्रस्तर खण्डों से आच्छादित है। प्रवेशद्वार के उत्तरंग में गणेश का अंकन सामान्यत: किया गया है।


    5. मनियान मंदिर समूह -


    maniyan

    वर्तमान में इस समूह के तीन मंदिर ही सुरक्षित अवस्था में हैं। रेखा शिखर शैली में निर्मित देवालयों के तलछंद योजना में गर्भगृह अतराल व अर्द्धमंडप एवं ऊर्ध्वछंद योजना में वेदीबंध, जघा व शिखर का प्रावधान है। प्रवेश द्वार के उत्तरंग में गणेश निर्मित किये गये हैं। मनियान मंदिर समूह के एक मंदिर के उत्तरंग में एक जैन तीर्थकर प्रतिमा का उल्लेख जैन द्वारा किया गया है।


    6. मृत्युंजय मंदिर समूह -


    mrutunjaytemple

    इस समूह के मंदिरों में मृत्युंजय मंदिर ही अपने मूलरूप में है। अन्य मंदिरों के अवशेष मात्र प्राप्त होते हैं। तलछद योजना की दृष्टि से मृत्युंजय मंदिर गर्भगृह, अतराल तथा मंडप सभी वर्गाकार हैं। ऊर्ध्वछंद योजना में मंदिर की जगती का कुछ भाग जमीन में धसा है। मंदिर का जंघा भाग सादा व उसके ऊपर अंतर पत्र है, जो शिखर तथा जंघा को विभाजित कर रहा है। इस देवालय के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। पूर्वाभिमुख मंदिर का प्रवेशद्वार सादा है। तथा जिसके ललाट पर चतुर्भुजी गणेश की प्रतिमा उत्कीर्ण है। मंडप की बाहरी दायीं दीवार पर सात पंक्तियों का आरम्भिक देवनागरी लिपि में एक लेख अंकित है।


    द्वाराहाट में स्थित ये मंदिर समूह केवल पूजा करने के स्थान ही नहीं थे वरन् ये सांस्कृतिक जीवन के भी केन्द्र थे। मंदिरों की स्थापना तथा निर्माण से केवल वातावरण ही परिवर्तित नहीं होता बल्कि आसपास की धार्मिक प्रवृत्तियों के जागरण में सहायता भी मिलती थी। मंदिर अपनी विशालता तथा दृढ़ता से उन विचारों को स्थायित्व प्रदान करता है जिसका उद्देश्य आदर्शो तथा मूल्यों की रक्षा करना था। जिस भू-भाग में मंदिर निर्मित होता है उस क्षेत्र में बसी जनता की धार्मिक गतिविधि वहीं केन्द्रित हो जाती है।


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