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    बिरूड़ा पंचमी

    पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हिमालय शिव का प्रिय स्थान है। उत्तराखण्ड देवी-देवताओं व ऋषि-मुनियों की तपोभूमि रही है। यहां लोक देवी नंदा में दैवी शक्तियों का समावेश होने से राजकुमारी नंदा और आद्य शक्ति नंदा व गंवरा को भक्त समाज एक ही भाव से देखता है। एक ओर लौकिक राजकन्या पर दैवीभाव आरोपित होता है। तो दूसरी ओर शिव की अर्धागिनी गंवरा पर भी लौकिक रूप से दैवीभाव आरोपित होता है। तब आद्यशक्ति शिवा भी गंवरा (गौरा) बनकर अनेक अभावों एवं कष्टों से जूझने वाली साधारण पर्वतीय नारी बन जाती है। भादों माह के शुक्ल पक्ष पंचमी से ही इस अनुष्ठान की तैयारी होती है। जिसे यहाँ के पंचागों में 'बिरूड़ा पंचमी' नाम दिया है। इस कारण इसे बिरूड़ा पंचमी भी कहते हैं। 'बिरूड़ा', 'पंचनाज' के लिए दिया गया शब्द है। स्त्रियाँ नहा धोकर इस पंचनाज को जिसमें चना, मटर, गेहूँ, कलों, गुर्हुश (गहत), भट आदि अनाज होते हैं, इन्हें ताँबे के बर्तन में भिगाने डालती हैं। वर्तन के बाहर चारों ओर पांच जगहों पर गोबर लगाकर दूब घास के तिनके भी रोपे जाते हैं - व्रत की कथा को महिलाएं लोकगीत के रूप में गाती हैं। जब बहू गंवरा से सन्तान की कामना करती है। तो देवी (बहु) कहती है - "गौरा देवी को सप्तमी को बरत, करूं सासु सप्तमी को बरत।" सास कहती है - "सात समुन्द पार बटिक लाओ, कुकुड़ी-माकुड़ी को फूल।" बहू कहती है - "गहरी छू गंगा चिफलों छ बाटो कसिकै ल्यूलों इजु कुकड़ी माकुड़ी को फूल।"


    'सातों' अर्थात् सप्तमी अर्थात् अमुक्ताभरण सप्तमी के दिन महिलाएँ झुण्डों में एकत्रित होकर बिरूड़ के बर्तनों को सिर पर रख नदी, बावड़ी, धारे या नौले में जाती हैं। पानी के नजदीक घास से एक माता की मूर्ति बनाती है और उसे रोली (पिठ्या), अक्षत-धूप-बाती, पुष्प, फल, मिष्ठान आदि अर्पित करने के बाद बिरूड़े धोने के बाद गोबर साफ कर दी जाती है और कुंआरी व्याहतायें जो अभी माँ नहीं बनी है, उनके द्वारा 'सावाँ' (स्थानीय पौधा) सौ पौधों से गंवरा का डिकारा (मूर्ति) बनाती हैं। जिसे स्थानीय वेश-भूषा, वस्त्राभूषण पहनाकर एक डलिया में रखकर सिर में धारण करके शंख, घण्टी, ध्वनी के साथ घर के आंगन में गंवरा के जन्म से ससुराल जाने तक के गीत गाये जाते हैं। महिलाएं उसे बिरूड़ चढ़ाती हैं तदुपरान्त घर के भीतर गंवरा गदराये हुए धानों के खेतों के बीच ऊगे 'सावां' या 'मास' के पौधों से बनायी जाती है। दूसरे दिन मैसर अर्थात् महेश्वर आते हैं। उपरोक्त पौधों की सहायता से मैसर की आकृति (डिकारा) बनायी जाती है। ब्राह्मण स्त्रोत पाठ, प्राण प्रतिष्ठा करते हैं तथा गंवरा के साथ मैसर को भी डलिया में स्थापित किया जाता है।


    जौनसारी महिलाएं छामरा नामक घास से निर्मित किये गये इस पुतले को 'छामड़िया दानौ' दानव कहती है। जो स्त्री को सन्तानवती नहीं होने देता। माता की पूजा हो या मातृत्व की बाधक शक्ति, प्रजनन की आराधना दोनों में होती है। गौरा महेश्वर की डलिया को सिर में रखकर गीत गाती हुई व्याहता लड़कियाँ पूर्व निर्दिष्ट घर में प्रवेश करती हैं। "लली मायके आ गई है" लोकगीतों के बोलों से गंवरा का स्वागत किया जाता है।


    "श्री साम्ब सदाशिव प्रीति पूर्वक ऐहिकाऽमुष्मिक संकल सुख सौभाग्य संतति बृद्धये शुक्ला भरण सप्तमी वृत करिष्ये तदंगत्वेन पट्टे लिखियतों: श्री गौरी महेश्वरीयों: पूजन करिष्ये।" अमुक्ताभरण पट्ट चित्र में महिलाएं इस प्रकार चित्रांकन करती हैं।


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