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    भड़ा - लोकनाट्य

    'भड़ा' एकल नाट्य रूप है। इसे 'भड़ौली' भी कहते हैं।'भड़ा' को प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति को 'भाट', 'रैभाट', 'रणचंप्या, दमैं' आदि कहा जाता है। यह उत्तराखंड की विशिष्ट लोकनाट्य शैली है। इसमें वीरों अथवा राजाओं की प्रशस्ति का गायन करता हुआ भाट या चारण एकल अभिनय करता है। इसकी तुलना 'पंडवाणी' से की जा सकती है।


    'भड़ा' गायक भाट वेश-भूषा में सजा रहता हैं। वह सिर पगड़ी शरीर में एक लंबा झगुला, अंगिया और चूड़ीदार पायजामा पहने रहता है। उसके पैरों में घुंघरू बंधे रहते हैं, हाथ में कंधे पर फीते बंधा हुड़का रहता, फीते पर छोटी-छोटी घंटिया लगी रहती हैं। उसके पीछे एक या दो हुड़का लिए वादक और सहगायन हेतु तीन से पांच तक सहगायक होते हैं। भाट गाथा गायन के वर्णनानुसार विभिन्न ध्वनियों, हाव-भावों द्वारा आंगिक, वाचिक और कायिकादि अभिनय का प्रदर्शन करता है। उसका अभिनय तब अपने चरम पर होता है, जब सहगायक लंबे आलाप के साथ समूहगान गा रहे होते हैं। इसमें अभिनय केवल मुख्य पात्र (भाट) करता है। एकल अभिनय उसके अभिनय कौशल पर निर्भर करता है। 'भड़ा' को अभिनय का ऐसा जीवंत संस्पर्श देने वालों में स्व॰ झूसिया दमाई का विशेष योगदान रहा है। भड़ा का आयोजन मेलों-खेलों, पुत्र जन्मोत्सव, विवाह आदि अवसरों पर होता था। यह लोक मनोरंजन की बड़ी स्वस्थ एवं सशक्त परंपरा थी, जो अब समाप्तप्राय है। भड़ा की गायन शैली गद्य-पद्यात्मक है। गायन के बीच मुक्तक गीतों का प्रयोग करता हुआ गायक नृत्य भी प्रस्तुत करता है। यह अभिनय और गायन संध्याकाल में भोजन के उपरांत उषाकाल तक अनवरत संपादित होता था।


    भड़ा के मंचन के लिए विशेष रंगमंच की आवश्यकता नहीं होती। बस, 100 से 400-500 लोगों के बैठने का स्थान चाहिए मुख्य पात्र के पीछे खड़े होने के लिए पांच व्यक्तियों के स्थान एवं उसके घूमने फिरने व अभिनय के लिए 12-14 फीट का खाली स्थान, यही भड़ा का मच है। इसी मंच पर वह अपने एकत अभिनय द्वारा गाथा के पात्रों और घटनाओं का कुशलतापूर्वक अभिनय करता है। इसमें मुख्य पात्र का अभिनय में दक्ष होना अनिवार्य है। उसमें 4 से 6 घंटों तक दर्शकों को बांधे रहने की क्षमता होनी चाहिए। गीत, नृत्य और अभिनय की त्रिवेणी में अबाध रूप से दर्शकों को स्नात कराते रहने की सामर्थ्य ही इसकी विशिष्टता है।


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