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    बाल मिठाई

    Bal Mithai

    ‌दुनिया का कोई कोना ऐसा नहीं होगा जिनके व्यंजनों में मिठाई न आती हो। भारत की ही बात करें तो यहां के अनेक प्रांतों में विभिन्न प्रकार की मिठाईयां यहां के व्यंजनों में खासी प्रसिद्ध है, चाहे बंगाल के रोसगुल्ले हो, गुजरात की बांसुदी, या फिर आगरा के पेठे हों। उसी प्रकार उत्तराखण्ड में मिठाईयों में बाल मिठाई काफी पसन्द की जाती है। खासकर कुमाऊँ प्रान्त में वो भी अल्मोड़ा शहर जो कि "बाल मिठाई के शहर" के नाम से भी जाना जाता है।


    ‌उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अल्मोड़ा नगर के मिठाई विक्रेता लाला जोगा शाह, लाला बाजार, अल्मोड़ा ने बाल (मिठाई) की शुरूआत की थी। इस सम्बन्ध में रोचक तथ्य यह है कि अल्मोड़ा की बाल मिठाई अंग्रेजों को खूब भाई। ऐसे संकेत मिले हैं जिससे पता चलता है कि अंग्रेज अफसर क्रिसमस के मौके पर भेंट स्वरूप बाल मिठाई दूसरे को भेजते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के एक दस्तावेज के अनुसार बाल मिठाई कभी-कभी ब्रिटेन तक भेजी गई।


    ‌बाल मिठाई एक प्रकार की भूरे रंग की आयताकार चाकलेट होती है जिसमें चारों ओर से सफेद चीनी की छोटी छोटी गोलिया लिपटी रहती है। बाल मिठाई का आविष्कार 1865 से 1872 के बीच होने की प्रबल संभावना है। लाला जोगा शाह का जन्म 1840 में होने से यह सम्भावना सामने आती है। उन्नीसवीं शताब्दी में छपे एक छोटे विवरण से ज्ञात होता है कि 1875 से पूर्व बाल मिटाई बनने लग गई थी।


    ‌अल्मोड़ा के दुग्ध संघ (पराग पाताल देवी) का आर से लगभग दो दशक पूर्व एक अध्ययन कर पत्रकारों को बताया गया था कि शुद्ध पहाड़ी खोये से निर्मित बाल मिठाई में सुपाच्य वसा का सरल सम्मिश्रण पाया जाता है। यह शरीर के लिये शक्तिदायक ऊर्जा श्रोत का काम करता है। इसीलिए बाल मिठाई को पौष्टिक मिठाई कहा जाता है। अध्ययन से ज्ञात हुआ कि शुद्ध पहाड़ी खोये से निर्मित बाल मिठाई में प्रोटीन अधिक होने का एक कारण इसमें प्रयुक्त पोस्तादानें हैं। पोस्तादानें कार्बोहाइड्रेट ऊर्जा श्रोत और शक्ति प्रदायक होते हैं। इसमें लैक्टोज भी रहता है जो विटामीन सी युक्त है। इसका कारण हल्का खट्टापन है। बाल मिठाई में शक्तिदायक, स्फूर्तिदायक ग्लूकोज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है।


    अल्मोड़ा की पटाल के बाद बाल अल्मोड़ा के लोकजीवन से ऐसी जुड़ी कि अल्मोड़ा की पहचान बन गई। बाहर से यहाँ आने वाला व्यक्ति बाल मिठाई जरूर खरीदता और नगर से बाहर जाने वाला इसे उपहार या दस्तूर के बतौर ले जाता है। विशिष्ट स्वाद के कारण धीरे-धीरे कुमाऊँ के विभिन्न हिस्सों में बाल मिठाई निर्मित होने लगी।


    ‌ऐसा माना गया है कि बाल मिठाई प्रोटीन लैक्टोज, ग्लूकोज और वसा का ऐसा प्राकृतिक समायोजन है जो शुद्ध दूध से पांच गुना अधिक पौष्टिक तत्वों से युक्त हो जाता है। लचीलेपन के कारण इसको चबाना आसान होता है। जिससे लार स्वाभाविक रूप से निकलती है।


    ‌हाल के सालों में पहाड़ी खोये का उत्पादन निरन्तर घटते जा रहा है जबकि बाजार में इसकी माँग बढ़ती चली जा रही है। अल्मोड़ा जनपद के तल्ला तिखून, मल्ला तिखून, कण्डारखोला आदि खोये उत्पादक वाले गांव माने जाते थे। खोया उत्पादन गिरने का प्रमुख कारण लकड़ी प्राप्त न होना है। यहाँ पर पीढ़ी दर पीढ़ी खोया बनाने के लिये लकड़ी का उपयोग ईंधन के लिये होते आया। खोया बनाने वाले परिवारों ने इस वास्ते परम्परागत मोटी कढ़ाई (मोटे तले की) और चपटा पड़ेऊ अपने घरों में रखे हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक उपयोग में आते रहे। अब बाजार में इस तरह की कढ़ाई नहीं मिलती। सालों पूर्व जंगलों से लकड़ी प्राप्त करने में इतनी परेशानी नहीं थी। खोया निर्माताओं को लकड़ी (ईधन) सस्ती अथवा नि:शुल्क प्राप्त हो जाती थी। अब खोया बनाने के लिये लकड़ी प्राप्त करना आसान नहीं है। यदि किसी तरह लकड़ी खरीद कर खोया बनाया जाय तो इसके दाम इतने चढ़ जायेंगे कि बाजार में कीमत मिलना कठिन हो जायेगा।


    ‌इस क्षेत्र के खोया निर्माण करने वाले परिवार अनुभव से इतने निपुण हो जाते हैं कि उनके द्वारा परम्परागत तरीके से बनाया हुआ खाया खराब नहीं हो पाता। एक तरह से यह उनका पुश्तैनी धन्धा रहा है। खोया निर्माण करने वाले परिवारों के बुजुर्गों का मानना है कि यदि किसी वैकल्पिक विधि (ईंधन) अथवा मशीनों का उपयोग कर खोये का निर्माण होता है तो यह अपना परम्परागत स्वाद खो देगा। वे कहते हैं कि यह ठीक उसी तरह होगा जैसे कि पहाड़ी लकड़ियों और पहाड़ी भड्डू से बनी हुई गहत की दाल का स्वाद गैस और कुकर से बनी दाल के स्वाद से फर्क होता है। लकड़ियों में बनी हुई मडुवे की रोटी तथा गैस में बनी हुई रोटी में जो फर्क आता है वही फर्क खोये में आ जायेगा।


    ‌खोया बनाने वाले परिवार इतने निपुण हो जाते हैं कि उन्हें आंच (ताप) और दूध उबलते समय पड़ेऊ का दूध को हिलाने में इस्तेमाल का पूरा ज्ञान होता है। इससे उनका बनाया हुआ खोया खराब नहीं हो पाता।


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